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स॒मु॒द्रो᳖ऽसि॒ नभ॑स्वाना॒र्द्रदा॑नुः श॒म्भूर्म॑यो॒भूर॒भि मा॑ वाहि॒ स्वाहा॑ मा॒रु॒तो᳖ऽसि म॒रुतां॑ ग॒णः श॒म्भूर्म॑यो॒भूर॒भि मा॑ वाहि॒ स्वाहा॑ऽव॒स्यूर॑सि॒ दुव॑स्वाञ्छ॒म्भूर्म॑यो॒भूर॒भि मा॑ वाहि॒ स्वाहा॑ ॥४५ ॥

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पद पाठ

स॒मु॒द्रः। अ॒सि॒। नभ॑स्वान्। आ॒र्द्रदानु॒रित्या॒र्द्रऽदा॑नुः। श॒म्भूरिति॑ श॒म्ऽभूः। मयो॒भूरिति॑ मयः॒ऽभूः। अ॒भि। मा। वा॒हि॒। स्वाहा॑। मा॒रु॒तः। अ॒सि॒। म॒रुता॑म्। ग॒णः। श॒म्भूरिति॑ श॒म्ऽभूः। म॒यो॒भूरिति॑ मयः॒ऽभूः। अ॒भि। मा। वा॒हि॒। स्वाहा॑। अ॒व॒स्यूः। अ॒सि॒। दुव॑स्वान्। श॒म्भूरिति॑ श॒म्ऽभूः। म॒यो॒भूरिति॑ मयः॒ऽभूः। अ॒भि। मा। वा॒हि॒। स्वाहा॑ ॥४५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:45


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जो तू (नभस्वान्) जिसके समीप जल और (आर्द्रदानुः) शीतल गुणों का देनेवाला और (समुद्रः) जिसमें उलट-पलट जल गिरते उस समुद्र के समान (असि) है, वह (स्वाहा) सत्य क्रिया से (शम्भूः) उत्तम सुख और (मयोभूः) सामान्य सुख उत्पन्न करानेवाला होता हुआ (मा) मुझको (अभि, वाहि) सब ओर से प्राप्त हो तू (मारुतः) पवनों का सम्बन्धी जाननेहारा (मरुताम्) विद्वानों के (गणः) समूह के समान (असि) है, वह (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (शम्भूः) विशेष परजन्म के सुख और (मयोभूः) इस जन्म में सामान्य सुख का उत्पन्न करनेवाला होता हुआ (मा) मुझ को (अभि, वाहि) सब ओर से प्राप्त हो, जो तू (दुवस्वान्) प्रशंसित सत्कार से युक्त (अवस्यूः) अपनी रक्षा चाहनेवाले के समान (असि) है, वह (स्वाहा) उत्तम क्रिया से (शम्भूः) विशेष सुख और (मयोभूः) सामान्य अपने सुख का उत्पन्न करनेहारा होता हुआ (मा) मुझ को (अभि, वाहि) सब ओर से प्राप्त हो ॥४५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य समुद्र के समान गम्भीर और रत्नों से युक्त, कोमल पवन के तुल्य बलवान्, विद्वानों के तुल्य परोपकारी और अपने आत्मा के तुल्य सब की रक्षा करते हैं, वे ही सब के कल्याण और सुखों को कर सकते हैं ॥४५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(समुद्रः) समुद्द्रवन्त्यापो यस्मिन् सः (असि) (नभस्वान्) बहु नभो जलं विद्यते यस्मिन् सः। नभ इत्युदकनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१२) (आर्द्रदानुः) य आर्द्राणां गुणानां दानुर्दाता सः (शंभूः) यः शं सुखं भावयति सः (मयोभूः) यो मय आनन्दं भावयति सः (अभि) आभिमुख्ये (मा) माम् (वाहि) प्राप्नुहि (स्वाहा) सत्यया क्रियया (मारुतः) मरुतां पवनानामयं सम्बन्धी ज्ञाता (असि) (मरुताम्) विदुषाम् (गणः) समूहः (शम्भूः) शं कल्याणं भावयति सः (मयोभूः) सुखं भावुकः (अभि) (मा) (वाहि) (स्वाहा) (अवस्यूः) आत्मनोऽव इच्छुः (असि) (दुवस्वान्) दुवः प्रशस्तं परिचरणं विद्यते यस्य सः (शंभूः) (मयोभूः) (अभि) (मा) (वाहि) (स्वाहा) ॥४५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यस्त्वं नभस्वानार्द्रदानुः समुद्र इवासि स स्वाहा शंभूर्मयोभूः सन्माभिवाहि, यस्त्वं मारुतो मरुतां गण इवासि स स्वाहा शम्भूर्मयोभूस्सन्माभिवाहि, यस्त्वं दुवस्वानवस्यूरिवासि स तस्मात् स्वाहा शम्भूर्मयोभूः सन्माभिवाहि ॥४५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः समुद्रवद्गम्भीरा रत्नाढ्या ऋजवो वायुवद् बलिष्ठा विद्वद्वत् परोपकारिणः स्वात्मवत् सर्वेषां रक्षकास्सन्ति, त एव सर्वेषां कल्याणं सुखं च कर्तुं शक्नुवन्ति ॥४५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोमालंकार आहे. जी माणसे समुद्राप्रमाणे गंभीर, रत्नासारखी गुणवान व मृदू अंतःकरणाची आणि वायूप्रमाणे बलवान, विद्वानांप्रमाणे परोपकारी व आपल्या आत्म्याप्रमाणे सर्वांचे रक्षण करणारी असतात ती सर्वांचे कल्याण करून सर्वांना सुखी करू शकतात.